शहर की चकाचौंध से दूर खेतों के बीचोबीच 50*55 फीट की चौकोर जर्जर इमारत के लंबे हॉल के नीचे, खिड़कियों से आ रही सूरज की हल्की रोशनी में बच्चों की कतारें बैठी थी। लगभग 40 बच्चे रहें होंगे, वे सब लगभग 10 वर्ष की उम्र के थे। सभी अपने काम में तल्लीन थे। प्रत्येक के सामने कंकड़दार धातुओं का मिश्रण पहाड़ जैसा रखा था। बच्चों के हाथ उन ढेरों से कागज के ख़ाली खोखों की ओर बार-बार जा रहे थे, इन खोखों में वे बारूद भर रहे थे। वे बच्चे कभी सर उठाकर ऊपर नहीं देखते थे क्योंकि हर पटाखे के खोखे में तेजी से बारूद भरने का दबाव था, हर चेहरे पर बेबसी का भाव था, खिलौनों वाले हाथों में बारूद थी, बाल रोबोटों के चेहरों पर मास्क लगे थे। दोपहर के भोजन के समय भी जब उनके दाहिने हाथ अनजाने में घर से लाए भोजन पर चोंच मारते थे, तो उनके बाएं हाथ मशीन की तरह ख़ाली खोखों में बारूद भरना जारी रखते थे।
यह दानशाह गांव के खेतों के बीचोबीच एक अवैध पटाखा फैक्टरी है, जो उत्तर प्रदेश के औरैया जिले के छोटे से कस्बे सहार से बहुत दूर नहीं थी। सहार ब्लॉक के दानशाह गांव में इस तरह की कई हस्तनिर्मित पटाखों की अवैध इकाइयाँ हैं जो घरों के अंदर या खेतों में संचालित होतीं हैं।
वैसे तो दुनिया में बाल श्रमिकों का सबसे बड़ा जमावड़ा शिवकाशी, तमिलनाडु की पटाखा फक्ट्रियों में है लेकिन दीवाली से कुछ महीनों पहले देश के हर कोने में एक मिनी शिवकाशी दिखने लगती है। पुरवा दानशाह भी औरैया जिले की मिनी शिवकाशी है। इन फैक्ट्रियों पर अवैध होने के साथ ही बाल श्रम का आरोप भी है। बच्चे, जिनमें से अधिकांश पड़ोसी गांवों से हैं या तो अपने गांवों में छोटी कुटीर इकाइयों में काम करते हैं या टेम्पो द्वारा ऐसी इकाइयों में लाए जाते हैं। हर रोज सुबह 4 से 6 बजे के बीच आस-पास के गांवों में बच्चों को उनके माता-पिता बेरहमी से उठाते हैं, एक टिफिन का डब्बा देते हैं जिसमें कमोवेश आचार और परांठे होते हैं और फैक्ट्री मालिकों के टेम्पो में बिठा देते हैं। इनमें से हर गांव में एक एजेंट होता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि जब साधन सुबह तडके अंधेरे में पहुंचे तो बच्चे एकदम तैयार हों। प्रत्येक एजेंट को इसके लिए कुछ मामूली वेतन मिलता है, और माता-पिता को बच्चों के काम के एवज में कुछ 'अग्रिम वेतन' दिया जाता है। और फिर शाम 7 से 9 बजे के बीच उन बच्चों को 12 घंटे का काम बिना किसी आराम के कराने के बाद उनके गाँव में वापस पहुंचा दिया जाता है।
लगभग 30 प्रतिशत बच्चे 15 वर्ष से कम उम्र के हैं। कानून के मुताबिक घरेलू कामों के लिए बच्चा 14 वर्ष से कम उम्र का नहीं होना चाहिये और खतरनाक कामों के लिए उसकी उम्र 18 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिये, लेकिन कानून और नियम पटाखों के लाल कागज में दफ्न हैं।
संसद भले ही महिला शशक्तिकरण के लिए जूझ रही हो लेकिन इन कारखानों में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक है, क्योंकि उन्हें अधिक कुशल माना जाता है, इन आतिशबाजी कारखानों में वे पटाखों के विशिष्ट लाल रंग से अखबारी कागज को रंगती हैं, बारूद रोल करती हैं पटाखे गिनने या लेबल चिपकाने का काम करती हैं, और अंतिम उत्पाद को पैक करतीं हैं।
इनमें से अधिकतर बच्चे कभी स्कूल नहीं गए, बचपन और खेल उनके लिए विदेशी अवधारणाएं हैं, उनका जीवन रसायनों और हानिकारक धुएं, सल्फर की धूल और बॉयलर रूम में उबलते हुए बीतता है। इन अवैध कुटीर कारखाने में सुरक्षा व्यवस्था इतनी जटिल होती है कि आगंतुकों को छत पर बैठा एक आदमी देखता रहता है, और जब तक गाँव में प्रवेश मिलता है, बच्चों को पास के खेतों में छिपा दिया जाता है।
नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर दानशाह गाँव के ही एक शख्स ने बताया कि कुछ वर्ष पहले गाँव के ही बज़ेदार नामक शख्स की फैक्ट्री में विस्फोट हो गया था। जिसमें काम कर रहे नीमहार गाँव दो बच्चे मौके पर ही मारे गए थे। विस्फोट इतना भयानक था कि 500 मीटर दूर स्थित एक कालेज के खिडकियों के सभी सीसे चकनाचूर हो गए थे और जिस कोठी में विस्फोट हुआ वहां कोठी का आधार तक नहीं बचा था लेकिन इतने बड़े हादसे के बावजूद मामला पुलिस रिकार्ड में कभी दर्ज नहीं हुआ और आपसी लेन-देन से मामला निपटा लिया गया।
इन अवैध पटाखा फैक्टरियों में इससे भी क्रूर बात यह है कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, कामगारों के रूप में बच्चों की उपयोगिता कम हो जाती है और उनकी जगह फिर से छोटे बच्चे ले लेते हैं, जिनका विरोध न करने वाला गुड उनके माता-पिता को आजीविका चलाने में मदद करता है। देश भर में लाखों लोग जब दिवाली के लिए आतिशबाजी खरीदते हैं या दुर्घटनाओं में कुछ बच्चों की मौत के बारे में खबरें पढ़ते हैं तो दानशाह जैसे गाँव उनके अवचेतन में एक पल के लिए याद आते हैं।
और फिर दानशाह की बेनूर शाम की धुंधली रोशनी में, सैकड़ों बच्चों को भूसे की तरह जर्जर टेम्पो में भरकर अवैध पटाखा फैक्टरियों से घर जाते हुए देखकर, देश की विवेकहीनता मन पर कफन की तरह बैठ जाती है।
आप जब 'दिवाली' शब्द सुनते हैं तो आपके मन में एक छवि तो जरूर आती होगी!
अधिकांश के लिए, यह रोशनी, उत्सव और जश्न है। हालाँकि, दिवाली हर किसी के लिए एक जैसी नहीं होती। एक ओर हम बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाने के लिए पटाखे फोड़ते हैं तो दूसरी ओर हम एक बड़ी सामाजिक बुराई, बाल श्रम को बढ़ावा देने के दोषी हैं। पटाखे फोड़ना उन बच्चों के बचपन को जलाने के समान है जो पटाखा कारखानों में दुर्घटनाओं और अमानवीय कामकाजी परिस्थितियों के कारण मर जाते हैं।
हर साल दिवाली से पहले या बाद अखबारों में पटाखा फैक्ट्री में हुए धमाकों और उनसे निकलने वाली मौत की दुर्गंध की खबरें छपती हैं; और हर साल इन दुर्घटनाओं में मरने वाले बच्चों की संख्या स्पष्ट है; और फिर हर साल हमारा ध्यान बाल श्रम की समस्या पर वापस आता है, जो वर्षों से सभी का ध्यान आकर्षित होने के बावजूद एक घातक कैंसर बना हुआ है। लेकिन बाल श्रम अन्य कई और क्षेत्रों पर दाग लगाता है जो हमारी बढ़ती अर्थव्यवस्था को पानी देते हैं। तो, हमारे हाथों पर कितना खून है?
आतिशबाजी और माचिस निर्माण के अलावा सभी पारंपरिक हस्तशिल्प उद्योगों जैसे कीमती पत्थर पॉलिश करना, चमड़ा टेनरी, कालीन बनाना, पीतल के बर्तन, चूड़ी निर्माण और ईंट बनाना आदि उद्योग बाल श्रम के खून से रंगे है।
संवैधानिक अनियमितताएँ: देश में एक दर्जन से ज्यादा कानून अस्तित्व में हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बाल श्रम से लड़ रहें हैं। संविधान के अनुच्छेद 24 में कहा गया है, "किसी भी बच्चे से किसी कारखाने या खदान में काम नहीं करवाया जाएगा या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाएगा।"
इसके अतिरिक्त, राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 39 में कहा गया है कि बच्चों की कोमल उम्र का गलत इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और नागरिकों को आर्थिक आवश्यकता के कारण उनकी उम्र और ताकत के लिए अनुपयुक्त व्यवसायों में काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास अवसर और सुविधाएँ दी जानीं चाहिये।
फ़ैक्टरी अधिनियम 1948 की धारा 35 और 36 में प्रावधान है कि आतिशबाजी कारखानों में बिजली के तार नहीं होने चाहिए, और रसायनों से लगने वाली चिंगारी को रोकने के लिए लकड़ी के चप्पल उपलब्ध कराए जाने चाहिए लेकिन दानशाह गाँव में अधिकांश आतिशबाजी इकाइयाँ फ़ैक्टरी अधिनियम के तहत पंजीकृत नहीं हैं अगर होतीं भी हैं तो मालिक रिकार्ड नहीं रखते और सुरक्षा उपकरण प्रदान नहीं करते हैं।
फ़ैक्टरी अधिनियम के तहत पंजीकृत इकाइयाँ भी इन नियमों का पालन नहीं करतीं हैं। बच्चों के नाम और वेतन का बही-खाता छुपा लिया जाता है। इससे भी भयंकर बात यह है कि बच्चों को मिलने वाली मजदूरी, न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम होती है।
सरकारों का कहना है कि बाल श्रम पर अंकुश लगा दिया गया है और अब यह कुल बच्चों की संख्या के 3.9 प्रतिशत से भी कम है, लेकिन धरातल की स्थिति कुछ और ही बयां करती है।
सन 1991 में नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की अगुवाई में जब 'पटाखा विरोधी अभियान’ को बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) द्वारा शुरू किया था तब पहली बार पटाखों के निर्माण में शामिल बच्चों की दुर्दशा सामने आई थी। इस अभियान में 10,000 स्कूलों और लगभग 6-7 मिलियन बच्चों को उसके अधिकारों को लेकर जागरूक किया गया था।
अभियान के दौरान नारा दिया गया था 'दीप जलाकर दीवाली मनाएं, बचपन जलाकर नहीं' (Light a lamp to celebrate Diwali — don’t burn a childhood) इस अभियान में पटाखों को पानी में डुबाकर ऐसी फैक्टरियों में काम करने वाले बच्चों के साथ होने वाले अन्याय से बचाने के लिए शुरू गया था।
इस दीपावली भी आसमान को रंगों से भर देने वाले हर पटाखे के लिए, कहीं न कहीं कोई बच्चा पटाखा उद्योग के अंधेरे में जी रहा है। यदि आप बाल श्रम पर अंकुश लगाना चाहते हैं तो इस दिवाली प्रतिज्ञा लें और पटाखों को 'नहीं' कहें।
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