हाल ही में असम सरकार ने असम मुस्लिम विवाह और पंजीकरण अधिनियम 1935 को रद्द कर दिया है।
मुसलमानों को अब असम में विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अनुरूप विवाह करना होगा। मुख्यमंत्री हेमंत विश्वा सरमा का कहना है कि इस कदम का मुख्य उद्देश्य असम में बाल विवाह पर रोक लगाना और मुस्लिम महिलाओं को सशक्त करना है। हालांकि, बाल विवाह रोकने के लिए बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 पहले से ही है।
2019-20 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के अनुसार, असम में लगभग 32% महिलाएं वयस्क होने से पहले शादी कर लेती हैं। इसे कम करने के लिए असम सरकार अपना पूरा जोर लगाए हुए है। पिछले साल असम सरकार ने एक विशेष अभियान में 24 घंटे के भीतर ही कम उम्र में लड़कियों की शादी में शामिल दूल्हे, उनके परिवार के सदस्यों और धार्मिक नेताओं सहित 2000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था और उन्हें जेल भेज दिया गया था। हालांकि, इन कार्रवाइयों पर असंवैधानिक होने के आरोप भी लगे।
अलजजीरा से बात करते हुए कानूनी विशेषज्ञों ने बताया कि असम में पुलिस की अधिकांश कार्रवाई दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 के अनुरूप नहीं थी। यह धारा दंडनीय अपराधों के लिए समय सीमा अवधि निर्धारित करती है और एक तय समय के बाद अपराध पर सुनवाई की अनुमति नहीं देती है। धारा 468 के अनुसार यदि कानून के तहत सज़ा 1-3 साल के बीच है, तो अदालत तीन साल से अधिक पुराने मामलों पर विचार नहीं कर सकती है। लेकिन गिरफ्तार किए गए लोगों में से अधिकांश ने कथित तौर पर सात वर्ष पहले बाल विवाह करने या करवाने में भाग लिया था।
क्या जरूरी था कानून हटाना?
महिला बाल विवाह की उच्च दर
2019-20 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के अनुसार, असम में लगभग 32% महिलाएं वयस्क होने से पहले शादी कर लेती हैं। सर्वेक्षण में कहा गया है कि असम की महिलाओं और लड़कियों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं ज्यादातर पहुंच से बाहर हैं। नई एनएफएचएस रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 15-49 वर्ष की आयु की केवल 29.6% महिलाओं के पास 10 या उससे अधिक वर्षों की स्कूली शिक्षा है। चूंकि महिलाओं की उच्च शिक्षा तक पहुंच नहीं है, इसलिए नौकरी में उनकी भागीदारी भी कम है।
असम का मातृ मृत्यु अनुपात भी देश में सबसे अधिक है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2018-2020 के लिए मातृ मृत्यु दर राज्य में प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 195 मौतें दर्ज की गईं।
आंकड़े बताते हैं कि असम में शिक्षा की भारी कमी है 12.4% मुस्लिम पुरुष निरक्षर है वहीं 10.45% मुस्लिम महिलाएं पूरी तरह निरक्षर हैं ऐसे में असम सरकार के लिए मुस्लिम विवाह कानून को रद्द करने से ज्यादा जरूरी हाशिए के समुदायों की लड़कियों के लिए अधिक शैक्षिक अवसर बनाना है।
असुरक्षा का भाव
निरक्षरता होने की वजह से अधिकतर लड़कियां नौकरी के अवसर नहीं पा पातीं और परिवार पर बोझ बनने लगती हैं। जब वे युवावस्था में जाती हैं तो परिवार उनकी शादी को एक जिम्मेदारी के रूप में देखने लगते हैं साथ ही परिवार को उनकी सुरक्षा की चिंता भी सताने लगती है। ऐसे में वे कम उम्र में शादी को बेहतर विकल्प के रूप में देखते हैं।
अनाधिकृत विवाह और यूसीसी
असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 के निरस्त होने से पहले, मुसलमान काजी, इस्लामी कानूनी विद्वानों या न्यायविदों की उपस्थिति में शादी कर सकते थे। कोई भी मुस्लिम व्यक्ति जिला स्तर पर एक एप्लीकेशन देकर काजी बनने का लाइसेंस प्राप्त कर सकता था। इन काजियों की वजह से कई बार विवाह या तो पंजीकृत ही नहीं होते थे या फिर गलत तरह से पंजीकृत होते थे। राज्य में कुल 94 पंजीकृत काजी हैं, जिनका धंधा अब पुराना हो गया है और उन्हें असम सरकार द्वारा 2 लाख रुपये का एकमुश्त मुआवजा दिया जाएगा।
अब मुसलमानों को विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत नियुक्त अधिकारियों के साथ अपनी शादी का पंजीकरण कराना होगा। लेकिन इसमें समस्या यह है कि यह प्रक्रिया काज़ियों के आदी लोगों के लिए दुर्गम होगी। शादी को विशेष विवाह अधिनियम के भीतर पंजीकृत कराने के लिए, दूल्हा और दुल्हन दोनों को उम्र, निवास, जन्म प्रमाण पत्र, पासबुक या मतदाता पहचान पत्र जैसे विवरण प्रस्तुत करने होंगे। ऐसे में इतनी कम शिक्षा के यह संभव होना थोड़ा कठिन दिखाई देता है। इससे अपंजीकृत विवाहों का खतरा बढ़ेगा।
कुछ लोगों का आरोप है कि सरकार महिला सशक्तिकरण और बाल विवाह के मुद्दे की आड़ में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू कर रही है और यह असम में यूसीसी की दिशा में असम सरकार का पहला कदम है।
हालाँकि इस कानून को निरस्त करने से मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत आवेदन) अधिनियम, 1937 प्रभावित नहीं होता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत आवेदन) अधिनियम, 1937 एक केंद्रीय कानून है जो मुस्लिम विवाह और तलाक को पंजीकृत करने के मामले में देश के बाकी हिस्सों को नियंत्रित करता है।
कैसे महिलाओं के खिलाफ था ये कानून?
मुस्लिम विवाह और पंजीकरण अधिनियम 1935 शादी के लिए लड़कियों की सही आयु उनके यौवनारम्भ को मानता है यानी कि वह उम्र जिसमें इंसानों में प्रजनन की छमता उत्पन्न होने लगती है। आमतौर पर लड़कियों में यौवनारम्भ 13 से 15 वर्ष की उम्र में और लड़कों में लगभग 18 वर्ष की उम्र में शुरू होता है। ऐसे में यह कानून लड़कियों के विवाह की आयु को 18 वर्ष बताने वाले बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के प्रावधानों के बिलकुल विरुद्ध था।
हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट में अपने एक फैसले कहा कि एक मुस्लिम लड़की यौवनारम्भ या फिर 15 वर्ष की उम्र पूरी करने पर शादी कर सकती है। अब यहां पर इन कानूनों में विरोधाभास साफ दिखाई देता है, एक ओर जहां मुस्लिम पर्सनल कानून महिलाओं को 15 वर्ष की उम्र पूरी करने पर शादी की इजाजत देता है वहीं बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 लड़कियों की शादी की उम्र को 18 वर्ष परिभाषित करता है।
भारत में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ हुए यौन अपराध को प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ़्रॉम सेक्सुअल ऑफ़ेंस एक्ट (POCSO) के अंर्तगत सजा का प्रावधान है लेकिन मुस्लिम विवाह अधिनियम 1935, 15 वर्ष की लड़कियों की शादी की इजाजत देता है जिससे कई मामलों में शादी और बलात्कार का अंतर स्पष्ट नहीं हो पाता और ऐसे मामलों में (POCSO) निष्प्रभावी हो जाता है।
आलोचना
मुस्लिम विवाह और पंजीकरण अधिनियम 1935 के हटने से कई मुस्लिम महिलाओं के अपंजीकृत विवाह का विकल्प चुनने का खतरा बढ़ गया है। ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं के पास उनके निकाहनामे, या विवाह प्रमाणपत्र नहीं है। क्योंकि या तो वे इसके बारे में जानती नहीं हैं या फिर उनके इस अनुरोध को उनके पति अपने अपमान के रूप में देखते हैं।
बाल विवाह से लड़ने के लिए एक व्यापक कार्य योजना की जरूरत है। चूंकि मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों को कानून की तरह लिखा नहीं गया है और उनकी व्याख्या काजी पर छोड़ दी गई है। मुस्लिम पर्सनल कानूनों में चीजें सामाजिक समझ पर आधारित हैं जैसे कि शादी के लिए कानूनी उम्र क्या होगी। इसीलिए ऐसे कानून खतरनाक हो जाते हैं। हमें समाज में सामाजिक बुराइयों को खत्म करने की जरूरत है। सही मायनों में महिलाओं का कल्याण शिक्षा स्तर में बढ़ोत्तरी से ही संभव है, इसका कोई शॉर्टकट उपलब्ध नहीं हैं।
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